उदासी को तोड़ने के लिए जून महीने में की गई यात्रा को लिख रहा हूँ. बात लम्बी है तो टुकड़े भी कुछ ज्यादा है. दिल में सुकून हो तो पढ़िए न हो तो जरुर पढ़िए क्योंकि दुनिया सिर्फ़ वैसी ही नहीं है जैसी हमें दिख रही है.
मैं बरसों बाद इस तरह के अनुभव में था. सुबह के वक़्त ठीक से आंख खुली न थी और रेल के पहियों के मद्दम शोर में आस-पास बच्चों की ख़ुशी लहक रही थी. खिड़की से बाहर सोने के रंग की रेत के धोरे पीछे छूटते जा रहे थे. बरसों से मेरे मन में बसा रहा कैर, खेजड़ी, आक और बुवाड़ी के मिश्रित रंग रूप का सौन्दर्य मुझे बांधे हुआ था. सूरज की पहली किरणों के साथ गोरी गायें और चितकबरी बकरियां दिखती और क्षण भर में खो जाती. मुस्कुरा कर बच्चों और पत्नी को देखता और फ़िर से गति से उपजे ख़यालों में उलझ जाता.
रेत जो पीछे की ओर भाग रही थी. उसकी गति में मेरा मन अशांत हुआ जाता. आगत के संभाव्य अंदेशों को बुनते हुए, उनके संभावित हल गढ़ता जाता. एक बड़ी होती बेटी और छोटे बेटे के साथ होने से कई तरह की निर्मूल आशंकाएं भी गति में थी. खिड़की से फ़िर बाहर देखता तो मरुधरा की इस माटी के लिए वंदना जैसे श्लोक मेरे मस्तिष्क में फूटते जाते. मैं उम्र भर इस रेत के गुण गा सकता हूँ कि इस जीवनदायिनी ने अपनी गोद में मेरे सारे सुख-दुःख समेटे फ़िर भी सदियों से इतनी ही निर्मल बनी रही. इस रेगिस्तान से कितने काफ़िले गुज़रे और कितने लुटेरों ने अंधे धोरों की घाटियों में लूट के जश्न मनाये. कितनी ही प्रेम कथाएं रेत से उपजी और उसी में निराकार होकर खो गयी.
मेरे लिए ये रेत के धोरे दुनिया के स्वर्ग कहे जाने वाले देशों से अधिक सुन्दर हैं. मुझे इनकी बलखाती लहरों से जागता स्वर्णिम जादू बहुत लुभाता है. दूर दूर तक एकांत और असीम शांति. बजती हुई हवा के रहस्यमय संगीत की मदहोशी और तमाम दुखों के बावजूद अनंत सुख भरा जीवन. शोर की दुनिया को नापसंद करने वाले लोगों की इस आरामगाह में लाल मिर्च और बाजरे की रोटी परमानन्द है. जेठ महीने की तपन आदम के हौसले के आगे बहुत छोटी जान पड़ती है. मैं ऐसा ही सोचते हुए जया को देखता और फ़िर से सोचता कि वे मुसाफ़िर किस चीज़ के बने थे जिन्होंने दुनिया छान मारी.
बाड़मेर से कोई दो सौ किलोमीटर के फ़ासले पर बसी मारवाड़ की राजधानी जोधपुर तक आते हुए हर जगह ऐसी जान पड़ती है कि बरसों से इसे देखा है. मेरी तमाम यात्राओं का ये इकलौता मार्ग रहा है अगर इसके सिवा कोई रास्ता है तो वो गुजरात की ओर जाता है. रेगिस्तान के इस भारतीय छोर पर जीवन, कला और धर्म को समझने के लिए एक पूरी उम्र कम है. मेरे दादा को रोज़गार के लिए सिंध मुफ़ीद था. सिंधियों और पंजाबियों को यहाँ का तम्बाकू पसंद था. यहाँ पहनावे और भाषा के छोटे छोटे बहुतेरे रूपों में कोई एक संस्कृति नहीं झलकती. बहुत से हिन्दू रोजे रखते है और मुसलमान मांगणियार गायक देवी माता और कृष्ण भजनों के बिना अपने गायन की शुरुआत नहीं करते. लोकदेवता बाबा रामदेव का आशीर्वाद पाना पड़ौसी मुल्क में आज भी एक बड़ी हसरत है. कुछ धूप जलाते रहे कुछ उनको पीर कह कर लोबान की गंध को दिल में बसाये हुए आते रहे.
मुझे क्या चाहिए सफ़र के लिए ? बस थोड़ा सा हौसला और बहुत सारी कॉफ़ी. जोधपुर में रेल डिब्बे को मुसाफ़िर किसी खैरात की तरह बेरहम होकर लूट लेना चाहते हैं लेकिन मैं अपने छोटे भाई के हाथ से कॉफ़ी का थर्मस ले लेता हूँ. भाई पुलिस महकमे का अफ़सर है मगर ज़माने के रंग को देखते हुए दिल से कई तरह की हिदायतें देता है. मैं चाहता हूँ कि बच्चों के साथ सफ़र करना किसी ईमान वाले मुल्क में चिंता का सबब कभी न होना चाहिए लेकिन लूट और आतंक से मुक्त स्वराज का सपना ज़मीन पर उतरा ही नहीं. अब भी दूसरे के हक़ को मारने में मज़ा कायम रहा.
रेल के डिब्बे में लौटते ही पाया कि हम चार लोगों के बैठने के लिए आरक्षित स्थान पर जोधपुर के भाभाओं की स्त्रियाँ और बच्चे बैठे थे. उन्होंने हमें इस तरह जगह दी जैसे सत्यनारायण की कथा में बैठने का स्थान क्षुद्र और कथा का प्रयोजन विशिष्ट होता है.