मौसम में ख़ास तब्दीली नहीं थी ठंडी हवा चल रही थी। अहमदाबाद जाने वाले हाईवे के पास नयी आबादी में चहल पहल थी. १६ फरवरी को शादी का बड़ा मुहूर्त था. आने वाले महीनों में कम ही सावे थे तो सब सेटल हो जाने की जल्दी में थे. एक साधारण सा दिखावटी कोट पहने हुए आप थोड़ा परेशान हो सकते हैं किन्तु कार में बैठ जाने के बाद वही कोट गरम अहसास देने लगता है. घर से दस गली के फासले पर खड़ी इस शादी में कौतुहल कुछ नहीं था. संचार क्रांति के बाद कोई ऐसी ख़ास प्रतीक्षित अनुभूति का रहस्य भरा रोमांच, दूल्हा – दुल्हन और बाराती – घरातियों में शायद ही बचा होगा. मुझे लगा कि ये तकनीक का अत्याचार है. इसी उधेड़बुन में मेरे सेल फोन ने सूचित किया कि तीसरी गली में एक कार खड़ी है जिसमे तीन लोग वेट ६९ कि बोतल के साथ इंतजार कर रहे हैं. ओह ! टेक टूल्स तुम भी कभी कितने काम आते हो.
मेरे तीसरे पैग के बाद मुझे याद नहीं आया मगर साथ बैठे मित्र ने कहा आपका फोन दो. मैंने उसे ऑफ नहीं किया था और यकीनन मेरे फोन नंबर हमारे सांसद के पास नहीं रहे होंगे ये सोच कर फोन दे दिया. ज़मीन पर उगी हुई कांटेदार झाड़ियों और गमले में खिले गुलाबों का कोई रिश्ता नहीं होता. देश की राजनीति में युवाओं को आने का आह्वान किया जाता है मगर सब जगह हालात एक से ही हैं. वंशवाद की बेल पोषित है, बचा हुआ सामान उजड़े हुए किलों की ढहती हुई दीवारों से आ रहा है. इनसे अलग कोई संसद और विधान सभा तक आ रहा है तो वह अपराध और धन की ताकत से. ऐसे किसी व्यक्ति को फोन करना मेरे लिए शर्म की ही बात है फिर भी एक नए चुने गए सरपंच और एक जिला परिषद के सदस्य के साथ बैठे, बहके हुए मित्र ने मेरे फोन से सांसद महोदयको कॉल करके मुझे ही फोन दे दिया. मैंने कहा कि आपकी याद आ रही है इसलिए फोन किया है बाकी बात आप इस मित्र से करो कहते हुए फोन वापस पकड़ा दिया.
रात ख़राब हुई। सुबह भी ख़राब. दिन भी ख़राब. शाम भी ख़राब. सही कुछ नहीं था मगर मेरे मित्र जो कल फोन कर रहे थे. उन्होंने कहा कि भाई साहब एक मतदाता पांच साल में एक बार तो पीकर अपने सांसद को फोन कर ही सकता है. आज अगर उसका फोन वापस आये तो आप चिंतित होना… ये उनकी कूटनीतिक समझ थी, ठीक ऐसा ही हुआ कि मेरी चिंता जाती रही. दो दिन तक सांसद महोदय का फोन नहीं आया.
सियासत अल्टीमेट है यानि पैसा आते ही पॉवर की भूख जाग जाती है और सिर्फ बिछी हुए चौसर के पासों को याद रखा जाता है। साल चौरानवें में एक मित्र की शादी में जयपुर के पास बस्सी जाना हुआ. प्रीतिभोज स्थल के मुख्य द्वार पर एक लग्जरी क्लास की स्पोर्ट्स कार से कुछ नौजवान उतरे. उनकी एंट्री किसी फिल्म के महानायक सदृश्य थी. पाखंड और आडम्बर से भरा उनका प्रदर्शन शायद बारातियों के लिए गर्व हो. उनके हाथ में दुनाली बन्दूक थी. कमर पर एक रिवाल्वर भी लटक रहा था. उनका नेता राजस्थान विश्व विद्यालय का पूर्व अध्यक्ष था और आज वह राज्य विधान सभा का सदस्य है. जय हो दुनालीतंत्र की लेकिन पिछले राज्य विधान सभा के चुनाव में पहली बार एक बी पी एल चयनित युवा एम एल ए चुना गया यही मुझे आशान्वित करता है. उस सदस्य के साथ जयपुर के फुटपाथों पर मैंने चाय पीते हुए कई दिन बिताये हैं. वे हौसले के दिन थे. अब महज पीने के दिन हैं. नियम से पीने के.
मुझे अभी भी अफ़सोस है और उम्मीद भी कि अगली तीन चार रातों के बाद ये असर कम हो जायेगा. भारत का लोकतंत्र अमर रहे. दुकाने सजी रहें.